मेरे चेहरे पर उदासियां छा गई है।
ना कोई समझौता करता मेरे अभिनय से।
मगर एक किरण जागी है मेरे हिमालय से।
सब कुछ करती है मगर कुछ कहती नहीं।
पिकर आंसुओं के घूंट कुछ कहती नहीं।
वो वक्त की मारी है अपने ही घर में हारी है।
ढल जाती है हर सांचे में थोड़ी सी गुणकारी है।
कहती अभी वक्त है ठहरों मेरा वक़्त आने दो।
आने वाला कल कहेगा ठहरा हूं उसको जाने दो।
✍️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी