चिताएं जलती है न केवल,
श्मशान घाट की गोदी में।
न जाने कितनी चिताएं जलती होगी।
हमारे भीतर भी, हमारे अंतर्मन में भी।
उन चिताओं की तपिश को,
महसूस कर पाना आसान होगा।
मगर उनकी तपिश से बचना,
बहुत मुश्किल होता है,
बल्कि नामुमकिन भी होता है।
हम ना जाने क्या सोचकर
उसके पीछे की हकीकत
बयां नहीं कर पाते हैं।
जब जिंदगी के सफर में
कोई छोड़ जाता है।
कोई रूठ जाता है।
कोई हार जाता है।
कोई चला जाता है।
तब हम इतना कमजोर और
अकेलापन महसूस करने लगते है।
कि हमको उस शख्स से जुड़ी हुई
बातें, यादें, वादें न जाने कितने
किस्से कहानियां जो
उसके साथ जुड़ी हुई होती हैं।
ठहर जाती है,
हमारे दिल के किसी
एक हिस्से में।
जिनको ज़हन में रखकर
न जाने कितनों से
छुपाना चाहते हैं।
या कहना नहीं चाहते
किसी से अपना ग़म, दर्द।
धीरे धीरे हम अपने अन्दर के
उस शख्स को छुपा लेते हैं
सबकी नज़रों से
एक नया चेहरा बना लेते हैं
सबके साथ जुड़ने के लिए
नया चेहरा न जाने कितने
नए चेहरों से जुड़ जाता है
मगर जो चेहरा धीरे धीरे
भीतर ही कहीं छुप गया
या गुमनाम हो गया है।
वो भीतर ही भीतर
सुलगता रहता है।
जो किसी से चाहकर भी
कुछ नहीं कह सकता है
ना ही कोई उसके चेहरे को
को कोई पढ़ पाता है।
न जाने कितनी चिताएं
जलती रहती है।
ऐसे ही हमारे भीतर
जिस पर सुलगते रहते हैं
ऐसे ही कितने गुमनाम चेहरे
न जाने कितने गुमनाम शख्स।
स्वरचित एवं मौलिक
©️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी
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