Wednesday, July 7, 2021

₹मेरे_दिन



निकल जाता हूं सुबह सुबह, हाथ में टिफिन लेकर घर से।
देखता हूं चौराहों पर, काम की तलाश में भीड़ होती हैं।।

मैं भी जाकर खड़ा हो जाता हूं, कभी तो काम मिलेगा।
वहीं थोड़ा विश्वास ओर फिर कल आने की बात होती है।।

आज घर लौटते वक्त मैंने बाजार से होकर गुजरना चाहा।
जरुरतों के आगे कहां खुशियां खरीदने की बात होती हैं।।

ये जिंदगी भी न जाने कोन कोन से दिन दिखाती रहती हैं।
हम जैसों के लिए सपने, बस  देखने की रात होती हैं।।

न जाने कितने दिनों का सफ़र हैं बस चलते रहना है "सुरेश"।
घनघोर अंधेरी रात के बाद एक नई सुबह की बात होती है।।

स्वरचित मौलिक रचना

✒️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी

1 comment:

सांवली बावली सी लड़की...........!!!!

हैं एक सांवली-बावली सी लड़की,  जो मेरे साथ सफ़र करती है  कोन हूं, कैसा हूं, मालूम नहीं, फिर भी ना कोई सवाल करती है। सोते-जागते, ...