हवाएं चलने लगी है, गांवों में बादलों की दस्तक है।
नजरें टिकी हुई घनघोर घटाओं की ओर मस्तक है।
प्रकृति के यौवन को अब ओर ना बिखरने दो।।
तपती रहीं जेठ की गर्मी, आषाढ़ के बादल बरसने दो।
फिर बहने लगेंगी कल कल करती गांव की छोटी नदियां।
सांझ ढले गीत गाएगी मिलकर गांव की सारी संखिया।
मौसम भी सुहाना हो जाएगा घूमने का मौका मिल जाएगा।
बनेंगे चाट पकौड़ी सबको खाने में मजा आ जाएगा।
बहुत दिनों से दुबके रहे अब घर से बाहर निकलने दो।
तपती रहीं जेठ की गर्मी अब आषाढ़ के बादल बरसने दो।
मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी
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