हारी हूं दिल की बाजी, अब ना कोई परछाई है।
अकेली जिंदगी, अकेले हम ओर मेरी तन्हाई है ।।
उलझी हुई जुल्फे, अब कोन सुलझाता है मेरी।
जख्म सीलते सीलते, कांपते हाथों की तुरपाई है।।
खामोश हो गई छन छन करती बिंछिया, पायल।
नंगे पांवो ने अब तक, कोई रस्म कहां निभाई है।।
चल रही हूं सफर में, ना पता है मंजिल का।
अनसुलझी पहेली, अभी तक ना सुलझाई है।।
स्वरचित एवं मौलिक
✍️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी
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