Wednesday, September 28, 2022

कर्मफल-अच्छे कर्मों का

कर्मों का फ़ल,
कितना मिलता है।
कब मिलता है।
कहां मिलता है।
कैसे मिलता है।
इतना तो मालूम नहीं,
लेकिन इतना पता है।
जितना मिलता हैं।
जब मिलता है।
जहां मिलता है।
जैसे मिलता है।
बहुत खूब मिलता है।
बहुत अच्छा लगता हैं।
जो अन्तर्मन को
अलौकिक शक्ति की
अनुभूति व्यक्तिगत
रूप से महसूस करने
की शक्ति देता हैं।
उस क्षण अन्तर्मन
आत्म सम्मान के उस उत्सव
मे रम कर जिस सुकून को
प्राप्त करता हैं।
वह भाव अलौकिक शक्ति
के प्रति ओर अधिक
समर्पित हो जाता है। 
फलस्वरूप जिंदगी के
इस रंगमंच पर कर्म करने
की भूमिका में स्वयं के 
अभिनय, अदाकारी के
प्रति जिम्मेदारी ओर
बढ़ जाती है।
जो अपने आप में 
आत्म ज्ञान, आत्म संतोष
प्राप्त करने का एक 
सुखद अहसास हैं।

स्वरचित एवं मौलिक 
*©️✒️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी*

Tuesday, September 27, 2022

अन्तर्मन.............!




चिताएं जलती है न केवल,
श्मशान घाट की गोदी में।
न जाने कितनी चिताएं जलती होगी।
हमारे भीतर भी, हमारे अंतर्मन में भी। 
उन चिताओं की तपिश को,
महसूस कर पाना आसान होगा। 
मगर उनकी तपिश से बचना,
बहुत मुश्किल होता है, 
बल्कि नामुमकिन भी होता है।
हम ना जाने क्या सोचकर
उसके पीछे की हकीकत
बयां नहीं कर पाते हैं।
जब जिंदगी के सफर में
कोई छोड़ जाता है।
कोई रूठ जाता है।
कोई हार जाता है।
कोई चला जाता है।
तब हम इतना कमजोर और 
अकेलापन महसूस करने लगते है।
कि हमको उस शख्स से जुड़ी हुई
बातें, यादें, वादें न जाने कितने
किस्से कहानियां जो 
उसके साथ जुड़ी हुई होती हैं।
ठहर जाती है,
हमारे दिल के किसी
एक हिस्से में। 
जिनको ज़हन में रखकर
न जाने कितनों से
छुपाना चाहते हैं।
या कहना नहीं चाहते 
किसी से अपना ग़म, दर्द। 
धीरे धीरे हम अपने अन्दर के
उस शख्स को छुपा लेते हैं
सबकी नज़रों से
एक नया चेहरा बना लेते हैं
सबके साथ जुड़ने के लिए
नया चेहरा न जाने कितने
नए चेहरों से जुड़ जाता है
मगर जो चेहरा धीरे धीरे
भीतर ही कहीं छुप गया
या गुमनाम हो गया है।
वो भीतर ही भीतर
सुलगता रहता है।
जो किसी से चाहकर भी
कुछ नहीं कह सकता है
ना ही कोई उसके चेहरे को
को कोई पढ़ पाता है।
न जाने कितनी चिताएं
जलती रहती है।
ऐसे ही हमारे भीतर
जिस पर सुलगते रहते हैं
ऐसे ही कितने गुमनाम चेहरे
न जाने कितने गुमनाम शख्स।

स्वरचित एवं मौलिक
©️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी

Wednesday, September 14, 2022

मेरी तन्हाईयां............... .।



हारी हूं दिल की बाजी, अब ना कोई परछाई है।
अकेली जिंदगी, अकेले हम ओर मेरी तन्हाई है ।।

उलझी हुई जुल्फे, अब कोन सुलझाता है मेरी।
जख्म सीलते सीलते, कांपते हाथों की तुरपाई है।।

खामोश हो गई छन छन करती बिंछिया, पायल।
नंगे पांवो ने अब तक, कोई रस्म कहां निभाई है।।

चल रही हूं सफर में, ना पता है मंजिल का।
अनसुलझी पहेली, अभी तक ना सुलझाई है।।

स्वरचित एवं मौलिक 
✍️सुरेश बुनकर बड़ीसादड़ी

सांवली बावली सी लड़की...........!!!!

हैं एक सांवली-बावली सी लड़की,  जो मेरे साथ सफ़र करती है  कोन हूं, कैसा हूं, मालूम नहीं, फिर भी ना कोई सवाल करती है। सोते-जागते, ...